R.N.I. Regd. No.: ORI ORI/2000/1840
ISSN No.: 2277 – 113
‘The Kadambini’ is the largest circulated (certified by ABC) monthly family magazine of Odisha with the largest readership. A comprehensive family magazine ‘The Kadambini’ has captured the mindscape of all sections of people of the state. It has also created it’s space in the heart of Odias residing in the country and abroad. This attractive monthly magazine with its broad content-mix and quality printing, caters to the taste of all cultured Odias regardless of age, gender and income level. ‘The Kadambini’ recipe of success is simple. It offers something for everyone. Every issue contains cover-features on topical social and cultural issues; life-style and fashion trends; movies and television; fiction, poetry, serial novels; Odia translations of classics from other languages; sports; health; beauty; cookery and household tips. The monthly magazine hits the stands with unfailing regularity on the 1st of every month. Apart from the regular issues ‘The Kadambini’ brings out four special issues every year. Each issue, be it regular or special is a keepsake — a glossy work of art with multicoloured layouts so beautiful that it catches attention of all section of readers. Needless to say, with so much going for it ‘The Kadambini’ provides the dream-vehicle for all to access the Odia cultural psyche.
R.N.I. Regd. No.: ORI ORI/2000/1840
‘The Kunikatha’, a monthly family magazine for the children and teenagers marks Kadambini Media’s commitment for future generations. Millions of child-readers of ‘The Kadambini’ could not satisfied with the limited share specified for them in the family magazine ‘The Kadambini’. They have been demanding and thriving for an exclusive magazine in Odia only for them. In order to meet their demand, Kadambini Media has published, ‘The Kunikatha’, which has got all the elements of information, entertainment and education for children of modern times. It contains stories, poems, jokes, cartoons, quizzes, G.K., topics on science, music, cinema, arts and literature. All its pages are attractive with multi-coloured layouts, beautiful sketches and photographs. ‘The Kunikatha’ maintains timely publication, better quality and rich content like ‘The Kadambini’. Now, it reaches almost all the families of ‘The Kadamibini’ subscribers. Besides, it has caught attention of many young Odia children and teenagers in the State and outside. It has a plan to reach all the students of different schools of Odisha.
R.N.I. Regd. No.: ORI ORI/2000/1840
उपन्यास 'शकुन्तला की बेटी' इस बात की सूचना देता है की हिंदी भाषा में सामाजिक परिवर्तन और नए मूल्यों पर आधारित बहुत अच्छी उपन्यास लिखी गई है I उपन्यास पढ़ते समय इसके कोई भी भाग को छोड़ा नहीं जा सकता है I पूरे उपन्यास की कथा शैली पाठक को इसे चाव से पढ़ने के लिए विवश करेगी।
'शकुंतला की बेटी' एक प्रताड़ित महिला की आत्मकथा तथा एक नारी के दर्द भरे जीवन का शुद्ध चित्रण है। लेखिका ने ग्रामीण ओडिशा में एक मध्यमवर्गीय परिवार के दैनिक जीवन की कहानी को वाक्पटुता से वर्णित किया है। बेटी को जन्म देने के बाद शकुंतला कैसे संघर्ष का साधन बन जाती है, साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक जीवन कैसे बदल रहा है, यह उपन्यास की कहानी है।
निम्न मध्यवर्गीय परिवार की कठिनाइयों के साथ चरित्र कैसे जीते हैं और गरीबी उन्हें खुशी के कई लाभों से वंचित करने के साथ अन्याय और भ्रष्टाचार के चरक्रविहु में फास जाते है; वह है शकुंतला की कहानी। भाई-बहन, पिता-माता के प्यार और स्नेह के साथ, कैसे लड़कियां हर रोज हर पल आंदोलन लांछित होते हैं, एवं अभाव और स्वाभाव के संघर्ष में कास्ट सहने के लिए मजबूर हो जाती हैं; यह उपन्यास के प्रत्येक पन्ने पर जीवंत अनुभव किया जा सकता है। परिवार के सुख-दुख की रोज की कहानी को लेखिका ने अपने अंदाज में प्रकाश किया है।
शकुंतला के भाई, बहन, बहनोई, देवरानी, भाबी और ननंदा के स्वार्थ और संकीर्णता ने कैसे शकुंतला का जीवन को पल पल शोषण किये हैं I इसकी मार्मिक वर्णना शैली कभी पाठकों के मन में मधुरता पैदा करती है तो कभी पाप और शोषण की दर्दनाक कहानी पाठकों को शकुंतला के दर्द भरे जीवन से रूबरू कराती है; इस उपन्यास को बिना पढ़े नहीं समझा जा सकता।
शकुंतला के विवाह ने उसके तन और मन में ऐसी रोमांच पैदा कर दी थी पर उस रोमांच को हक़ीक़त में बदलने से पहले उसके पति अमर ने दुनिया को अलविदा केह दिया। फिर कैसे इस निराश सुंदर विधवा को उसके रिश्तेदार नोच कर शोशण करते है; उस दर्दनाक कहानी लेखिका की कलम में सजीव हो रही है। लेखिका की अंतरंग वर्णन शैली पाठकों के संवेदनशीलता को और भी उत्सुक्त करती है।
आखरी सहारा के रूप में निःसहाय शकुंतला अपनी बड़ी बहन के पति सुर भाई के परिवार में जा कर शरण ली, जहाँ उस असहाय को उसके अपने बहनोई ने जबरन जंगली जानवर की तरह शिकार किया I यह न केवल एक दुखद कहानी है, बल्कि शकुंतला के प्रति पाठकों की सहानुभूति स्वतः ही पाठक की आंखों में आंसू ला देती है। फिर जन्म लेती है उस पाप से जन्मी उसकी बेटी ‘भारती’ और वह दिन शकुंतला के लिए सबसे खुसी का दिन था I
यह सच है कि मौसी की मदद से शकुंतला को आश्रय मिल गया था लेकिन वह अपने हातों से किस प्रकार भारती को पल पोश कर बड़ा करेगी, यह था उसका एक मात्र लक्ष्य I भारती के पढ़ने के अदम्य जुनून ने उसे अपनी बेटी को स्कूल में दाखिला दिलाने के लेने के लिए मजबूर कर दिया। लेकिन सामाजिक प्रथा और परंपरा हिंदू समाज को इस तरह बांध रखा है कि लड़की का नाम लिखते समय हेडसर को अपनी बेटी के पिता का नाम शकुंतला उच्चारण न कर पाने पर दर्द से टूट पड़ती है और उस दर्द ने उसे कुछ देर के लिए स्तब्ध कर देता है I भारती जैसी अमृत लड़की की पहली पहचान उसकी मां शकुंतला है। क्यों उस पापी का नाम लिखवा कर उसके साथ अमृत बाँटू? शकुन्तला ने कहा, "जब युगों-युगों से पुरुष पाप करके उससे मुकर जाता है, तो माँ क्यों पिता के अधिकार का बलपूर्वक दावा करे?" अंत में, शकुंतला ने प्रधानाध्यापक से कहा, "हाँ, सर, मैं कहती हूँ कि लिखिए, भारती के पिता का नाम भी शकुंतला है।" प्रधानाध्यापक ने भी अंततः शकुंतला की गरिमा की रक्षा कर उसकी दलील को स्वीकार कर शकुंतला को पिता और माता दोनों का स्थान दे दिया।
'शकुन्तला की बेटी' उपन्यास पढ़ते वक़्त मैं कभी कभी अत्यंत भावुक हो जाता था और कभी कभी मेरे रोंगटे खड़े हो जाते I भारती की भविष्य इस स्वतंत्र भारत में सुनिश्चित है यह दृढ़विश्वास मेरे मन में प्रकट हुआ I उसी के साथ भारती का चरित्र प्राचीन भारत का धर्म और प्रतिबद्ध 'शकुंतला' को नारी के स्वाभिमान और स्वाधिकार को प्रतिष्ठित करेगी यह विश्वास भी मेरे मन में आया I
एक नारी को मुख्य चरित्र गठन कर लेखिका शकुंतला को उसकी स्वतंत्रता और मर्यादाजनक स्थान दिलाया है, यह सामाजिक परिवर्तन के मामलों के पन्नो पर युगों युगों तक लिखा रहेगा I डॉ. इति सामंत इस उपन्यास के माध्यम से ओड़िआ साहित्य में जो नई चेतना की वार्ता प्रकाश की है उसके लिए उन्हें नारी के स्वतंत्रता और स्वाभिमान का प्रतिक माना जायेगा I साथ ही लेखिका ने इस उपन्यास में ग्रामीण भाषा को जिस प्रकार अभिव्यक्त किया है यह भाषा के प्रयोग को अधिक यथार्थवादी और सजीव बना रहा है।
ओड़िआ साहित्य में उपन्यासों की धारा धीरे धीरे कमज़ोर होते हुए, उपन्यास 'शकुंतला की बेटी' एक सुविचारित हस्तक्षेप है । यह हस्तक्षेप शैली और विषय दोनों को लेकर प्रस्तुत है। बेशक, मुख्य कहानी के आख्यान को अक्षुण्ण रखते हुए, बिना भाव के दुखद कहानी कहना और उसमें से तत्वों को निकालकर नारी-सशक्तिकरण के प्रतीक के रूप में 'नारी-दुख' को प्रस्तुत करना, एति की गौरवपूर्ण उपलब्धि है। 'शकुंतला की बेटी' को चमत्कार अंदाज में लिखा गया है। इस तरह कवि और उपन्यासकार नारी जीवन के बारे में बहुत मुखर हैं, लेकिन अभिव्यक्ति की कमी के कारण वह मुखरता खासतौर पर स्टीरियोटाइप पर परिणित होती है। अब आती है यह उपन्यास की असली कहानी या असल सुंदरता और शक्ति की बात। भव्यता और क्षमता के कारण ही है कि यह उपन्यास एक हस्तक्षेप कहलाता है I वहाँ, शकुंतला को एक सर्वशक्तिमानी महिला के रूप में निर्मित कर,अंत में उसके अस्तित्व को उत्कर्ष देकर उपन्यासिका समाज में चलता आ रहा स्टीरियोटाइप मानसिकता को खंडन किया है।
मैं इस उपन्यास को निरंतर पढ़ता रहा । मैं इसे लगातार पढ़ सका क्योंकि इस उपन्यास ने मुझे पढ़ने से रुकने या विचलित होने नहीं दिया। उपन्यास की शुरुआती में गर्भवती शकुंतला की बेटी का जन्म, उसको आश्रय देनेवाला परिवार के सभी कामों को निपटा कर, खुद नौकरी कर अपनी बेटी को पाल कर बड़ा करना, यह सब का वर्णन बहुत ही खूबी तरीके से किया गया है I न क्रोध, न अभिमान, न कटुता, न टूटे सपनों की पीड़ा। मानो शकुंतला नाम की इस महिला ने जिंदगी के साथ अपना आखिरी फैसला बहुत पहले ही कर लिया हो! एक वीरांगना रचकर मंच को चकाचौंध करने में लेखिका की कोई दिलचस्पी नहीं है, क्योंकि उनका इरादा महिला की भेद्यता को दिखाना है, यानी पीड़िता के पारिवारिक और सामाजिक तत्वों के प्रति उसकी सहज कोमलता, जिससे एक मजबूत से मजबूत प्रभाव पैदा होगा I यह कोई छोटी बात नहीं है! इतने सारे साधन होने पर भी उन्होंने शकुंतला को ऐसा क्यों बनाया? वह क्या पहले ही तूफान मचा कर घर सर पर उठा नहीं पाती I जादातर महिलायें शर्म और शर्मिंदगी का शिकार के डर से ऐसा नहीं कर; सेह लेती है I उनके लिए उपन्यास कौन लिखेगा? क्या होगा वह उपन्यास का रूप जिसमें एक नारी प्रतिरोध नहीं कर सकती,अवरोध ना कर बलि चढ़ जाती है और प्रतिरोध करने में असमर्थ हो जाती है? यह है इति का उपन्यास! जहाँ तक मैं जानता हूँ, ऐसा उपन्यास अभी तक नहीं लिखा गया है, क्योंकि अन्य लेखक जब भी नारी-केन्द्रित उपन्यास लिखते हैं, तो वे कहीं ना कहीं पीड़िता के हाथों में हथियार पकड़ा देते हैं! परिणामस्वरूप मूर्तिमति वीरांगनाएं उभरती हैं, लेकिन आम नारी की कहानी नदारद रह जाती है।
यह उपन्यास अपूर्व है! कहीं भी इति ने थोड़ा भी मौका नहीं दिया है उनकी कल्पना के चारदीवारी के बहार झाकने I कितनी भयानक घटना घटी जाती है, सचमुच कितने मौनभाव की कल्पना से, इतना भयानक! सच में इस नारी का आत्म-बलिदान I जो कोई उस स्थिति की कल्पना करेगा वह रोएगा I जो भी अधीरता से पूछेगा की शकुंतला के हात में तुमने एक छुरा क्यों नहीं पकड़ाया इति, मानो वह यह उपन्यास के गहरे अधिकार के अंदर नहीं घुस पाया है I
शकुंतला का बचपन, माँ, बाप,बेहेन, सुरभाई और एक स्वप्नहीन विवाहित महिला का जीवन जिसे वह बचपन से प्यार करती थी - 'मैं यह काम कर रही हूँ, मैं वहाँ काम करूँगी!' चमत्कार प्रभाव! शकुंतला की शादी और अमर के साथ शादी के कुछ दिन, सुनले पल, नए सपने घुटन भरी फिर से जल गया, जैसे कोहरे में अचानक बौर जल जाता है! उन्होंने शकुन्तला के हस्ताक्षर ले लिए और फिर अकेली हो गई एक सरल, नासमझ, स्वप्नहीन, सुंदर महिला I क्या यह एक सामान्य महिला के जीवन की कहानी नहीं है? क्या होता है जब अपने पति को खोई हुई एक युवती विधवा के ऊपर उसका देवर आक्रोश में जंगली जानवर की तरह उस पर झपेटा मरता है? कौन बच पाता? हां, शकुंतला तो बच गई, लेकिन उसके बाद क्या हुआ? क्या किया उसके अपने बहनोई सूरा भाई ने? किसे बुलाती शकुंतला? कौन बचता उसे? कौन इस्वर रक्षा करते उसकी? दुखी शकुंतला के लिए कोई इस्वर नहीं है, लेकिन इस्वर की महिमा से उस दुखिहारी का दुःख भी और दुःख नहीं रहा!
वही शकुन्तला की बेटी, जो गर्भद्वार के पास अटक गई थी और जन्म के बाद रोई नहीं थी I वह लड़की जिसने शकुंतला को परेशान किया था और जिसे शकुंतला स्कूल में दाखिला दिलाने गई थी। लेकिन उस लड़की के पिता का क्या नाम है? एक लड़की अपने पिता के नाम के बिना अपना नाम कैसे लिखा सकती है? माँ के नाम से नहीं होगा? क्यों नहीं होगा? मैं इस कहानी का अंतिम भाग पाठकों पर छोड़ता हूँ।
कहने की आवश्यकता नहीं है कि यह उपन्यास एक महिला के जीवन का अमूल्य दस्तावेज है। मेरी राय में, पिछले पाँच वर्षों में, मेरे पढ़े हुए उपन्यासों में से यह उपन्यास सबसे अच्छा उपन्यास है। इति इन पाँच वर्षों में जो वक् सिद्धि हासिल कीं है, यह उन्हें सफल उपन्यासकारों की भीड़ में सबसे आगे खड़ा कर दिया है। अब मुझे यकीन है कि कान्हुचरण की अमलान नायिकाओं में इति की शकुंतला भी होंगी। 'शकुंतला की बेटी' हमारे समय की एक उत्कृष्ट रचना है।
हाली के दिनों में, उपन्यास लिखने में रुचि लेने वाले कुछ उपन्यासकार पाठकों के बिच अत्यंत प्रसिद्ध बन गए हैं; उनमें से डॉ. इति सामंत जी का उद्यम स्वागतयोग्य है। उन्होंने 'शकुन्तला की बेटी' उपन्यास की रचना कर स्वकीय प्रयत्न का परिचय दीं हैं। उपन्यास में एक नारी के जीवन की समस्याएं और उससे जुड़ी वेदनाओं को उजागर किया गया है।
'शकुन्तला की बेटी' उपन्यास में लेखक ने शकुन्तला के चरित्र की दिशा को अपने शिल्पगत एवं सुलभ व्यक्तित्व से महिमामंडित किया है। यह उपन्यास एक चरित्र प्रमुख उपन्यास है। एक अच्छा उपन्यास लिखने के लिए चरित्र, उच्च स्तर की भावना और जीवंत कथा शैली की आवश्यकता होती है। इस उपन्यास का महत्व इसके चरित्र की विशेषता पर आधार है। भावना के दृष्टिकोण से देखा जाए तो यहाँ लेखिका की प्रतिवाद की आवाज गूंजती है। हमारा समाज सभी क्षेत्रों में पिता के पहचान को लेकर क्यों इतना व्याकुल रहता है, इस बात का विरोध यहाँ किया गया है। लेखिका शकुंतला के चरित्र के माध्यम से हमारे समाज को क्रांति का संदेश दीं है। उपन्यास 'शकुंतला की बेटी' में लेखिका ने नारी जीवन की करुणा को व्यक्त करने में हमारे समाज में शकुंतला के चरित्र के सामने आने वाली सभी समस्याओं को सरलता और साहसपूर्वक व्यक्त किया है। नाजायज कन्या को न मारे उसकी मातृ पहचान को जीवित रख उसे जिन्दा रखना इस उपन्यास में महत्वपूर्ण है I उपन्यास के स्तर स्तर में नारी जीवन के अनेक अनकही बातें लेखिका ने कहने के साथ साथ पुरुष प्रधान सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध अपनी स्पष्ट बात व्यक्त की है। महिलाओं के दुख, दर्द, संघर्ष और पीड़ा को बहुत ही करुण और रोचक तरीके से व्यक्त करने में इस उपन्यास की भूमिका को न सहारे बिना कोई चुप नहीं रह सकता। मातृ पहचान को सम्मान देने के लिए लेखिका की महत्वपूर्ण आवाह्न, इस उपन्यास की विशेष आकर्षण है I ऐसे नूतन विषय पर उपन्यास शायद ही हमारे साहित्य में लिखे गए हों। इस उपन्यास में ओड़िया संस्कृति की अनेक झलकियाँ दिखती हैं। इसमें लेखक ने अपनी संस्कृति के सभी सशक्त पहलुओं को चमत्कार ढंग से लिखा है। भावनाओं की प्रस्तुति और छतरित्रों के शानदार चित्रण की दृष्टि से उपन्यास बहुत प्रभावी है। लेखक ने शकुन्तला के चरित्र में आधुनिक नारी की समस्याओं को सूक्ष्म रूप दिया है।
'शकुंतला की बेटी' उपन्यास की रचना शैली पाठक को अपनी ओर खींचती है। इसमें ग्रामीण भाषा को साहित्यिक रूप दिया गया है। लेखक ने अपने उपन्यास में भाषा के रचनात्मक पक्ष का प्रयोग किया है। कई स्थानों पर भाषा प्रतीकात्मक और संप्रेषणीय है। जहाँ आवश्यक हो उपमाओं और दृष्टांतों की कोई कमी नहीं है। नाटकीय संवाद पाठक के मन में प्रसन्नता उत्पन्न करता हैं। उपन्यास में लेखिका ने सहज, सरल और हृदयस्पर्शी भाषा का प्रयोग किया है।
उपन्यास 'शकुंतला की बेटी' ओडिया उपन्यासों की दुनिया में एक नया संयोग है। पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं की विशिष्ट पहचान बनाने की दिशा में यह एक अलग उपन्यास है। उपन्यास पढ़ने वक़्त पाठक उसे आधे में पढ़कर बंद नहीं कर सकेंगे I ओडिया उपन्यास साहित्य को समृद्ध करने में 'शकुंतला की बेटी' बहुत प्रभावशाली है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि उपन्यास लेखिका की उपलब्धि स्थापित करने में सहायक होगा।
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